Monday, March 7, 2011

Women in the society आदमी के लिए ईनामे खुदा है औरत A word gift for Harkeerat 'Heer' by Anwer Jamal

   औरत मां है, बहन है, बेटी है।  औरत जीवन साथी है। 
औरत के बिना न तो संसार का वुजूद मुमकिन है और न ही संसार की खुशियां। औरत आधी आबादी है जो पूरी आबादी की खुशियों का ख़याल रखती है, खुशियां देती है लेकिन खुद उसकी खुशियों का ख़याल सबसे कम रखा जाता है। विरासत और जायदाद में उसे आज भी बेटों के बराबर हिस्सा नहीं दिया जाता। जिसकी वजह से वह आर्थिक रूप से कमज़ोर हुई। कमज़ोर को समाज में सताया जाता ही है, सो औरत को भी सताया गया, भारत में भी और भारत के बाहर भी। विवाह उसकी सुरक्षा हो सकता था लेकिन यहां भी उसे सहारा देने वाले हाथों ने उसे तभी कु़बूल करना गवारा किया जबकि वह लक्ष्मी बनकर आए, साथ में ख़ूब सारा धन और साधन लेकर आए। केवल उसके स्त्रीत्व को सम्मान यहां भी न मिला।
    दुनिया बदली, रंग बदले, व्यवस्था बदली तो औरत की कमज़ोरी को हल करने के लिए उसे पढ़ाना ज़रूरी समझा गया और जब पढ़ा दिया गया तो फिर उसके लिए ‘जॉब‘ भी लाज़िम हो गया। उसे ‘जॉब‘ करना पड़ा ताकि वह खुद पर ख़र्च की गई बाप की रक़म को कई गुना करके अपने शौहर के लिए लाती रहे, क़िस्त दर क़िस्त, जीवन भर।
    औरत घर से बाहर नौकरी करती है लेकिन उसका दिल अपने घर और अपने बच्चों में पड़ा रहता है। वह लौटती है रात को 7 बजे, 8 बजे या कभी कभी और भी ज़्यादा लेट जबकि उसके बच्चे स्कूल से लौट आते हैं दिन में ही 2 बजे। बच्चा घर लौटकर अपने पास अपनी मां को देखना चाहता है, यह एक हक़ीक़त है और यह भी हक़ीक़त है कि अगर औरत न कमाए तो फिर वह स्टेटस मेनटेन करना संभव न रह पाएगा जो कि औरत की कमाई के साथ मेनटेन किया जा रहा है।
    बात यह नहीं है कि औरत को बिल्कुल घर में ही क़ैद कर दिया जाए। उसे पढ़ने-लिखने की या कमाने की आज़ादी न मिले। उसे व्यापार और दूसरे अहम ओहदों से दूर कर दिया जाए। नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। लड़का हो या लड़की उसे पढ़ाई-लिखाई, कमाई और विकास के पूरे अवसर मिलने चाहिएं लेकिन यह उसकी मजबूरी हरगिज़ न बना दी जाए कि अगर वह केवल घर में ही रहे, केवल अपने बच्चों को अपना पूरा प्यार और अपना पूरा ध्यान दे तो फिर वह उन औरतों से आर्थिक रूप से पिछड़ी रह जाए जो कि अपने बच्चों को कम ध्यान देकर दूसरे काम करके रूपया कमा रही हैं।
    औरत घर में रहे तो और अगर वह घर से बाहर अपनी ज़िम्मेदारियां अदा करती है तो, दोनों हालत में वह जहां भी रहना चाहे अपने आज़ाद फ़ैसले के मुताबिक़ रहे न कि हालात के दबाव में आकर। घर में रहे तो भी और बाहर रहे तो भी, दोनों हालत में वह पूरी तरह महफ़ूज़ रहनी चाहिए। ऐसी व्यवस्था हमें करनी होगी, यह केवल औरतों की ही ज़िम्मेदारी नहीं है बल्कि उनसे कहीं ज़्यादा यह मर्दों की ज़िम्मेदारी है। यही आधी आबादी आने वाली सारी आबादी को जन्म देती है। अगर इसके व्यक्तित्व के विकास में किसी भी तरह की कोई कमी रहती है तो वह कमी उससे आने वाली नस्लों में ट्रांसफ़र होगी, चाहे उनमें लड़के हों या लड़कियां। औरत आधी आबादी है लेकिन समाज की बुनियाद है। बुनियाद को कमज़ोर रखकर कोई महल ऊंचा और टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता, लेकिन आज हम देख रहे हैं कि न सिर्फ़ समाज की बुनियाद पहले से ही कमज़ोर चली आ रही है बल्कि उसपर लगातार चोट भी की जा रही है।
    आज औरत घर में भी महफ़ूज़ नहीं है। उसे मज़बूत बनाने के लिए उसे घर से बाहर जहां खींचकर ला खड़ा किया गया है, वहां तो बिल्कुल भी नहीं है। लोग कहते हैं कि इसका हल शिक्षा है लेकिन जो विकसित देश हैं, जहां शिक्षा पर्याप्त है, वहां भी औरत आज सुरक्षित नहीं है।

कार्यस्थल पर बेलगाम यौन शोषण
न्यूयार्क। कार्यस्थल पर महिला कर्मियों का यौन शोषण रोकने के लिए चाहे कितने ही कानून बन जाएं लेकिन इस पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पा रही है। युनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के हालिया सर्वे में पता चला है कि प्रति दस में मे नौ महिलाएं कार्यस्थल पर विभिन्न प्रकार के शोषण की शिकार हैं। इस शोध में अमेरिकी सेना और विधि क्षेत्र के पेशेवरों को शामिल किया गया था। सर्वे में शामिल महिलाओं ने बताया कि प्रमोशन और मोटी सैलरी का लालच देकर अनुचित पेशकश की गई।
      अमर उजाला 12 अगस्त, 2010
   
  अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सजग लोगों के समाज में, विकसित देश में औरत का शोषण बेलगाम हो रहा है तो विकासशील और अविकसित देशों में औरत की हालत और भी ज़्यादा दयनीय होगी, यह तय है। 
    इस सर्वे से विकसित देशों की हालत भी सामने आ जाती है और यह भी पता चल जाता है कि आधुनिक शिक्षा और आधुनिकता एक स्त्री को उसके स्त्रीत्व का सम्मान देने में भी नाकाम है और उसे सुरक्षा देने में भी। आधुनिक पश्चिमी विचारधारा एक पूर्णतः असफल विचारधारा है। यंत्रों के अविष्कार कर लेने और साधनों को बेहतर बना देने में तो वे सफल हैं लेकिन औरत न तो कोई यंत्र है और न ही कोई साधन। इसीलिए वे उसे समझने में भी असफल हैं।
    औरत एक ज़िंदा वुजूद है। एक ऐसा वुजूद, जिसके दम से ज़िंदगी का वुजूद है। उसके अंदर आत्मा भी है और एक मन भी। वह केवल शरीर मात्र नहीं है। आज तक प्रायः औरत के शरीर को ही जाना गया है या फिर बहुत ज़्यादा हुआ तो उसके मन को। सारी दुनिया के काव्य-महाकाव्य उसके हुस्न की तारीफ़ से भरे पड़े हैं, जिन्हें बार-बार दोहराया गया और ज़्यादातर औरत को मूर्ख बनाया गया, उसके विश्वास को छला गया। आज की औरत मर्द के प्रति अपना सहज विश्वास खो चुकी है। चंद घंटों की बच्ची से लेकर बूढ़ी औरतों तक, हरेक की आबरू की धज्जियां उड़ाने वाला मर्द ही है। ज़्यादातर उन्हें ऐसी सज़ा नहीं मिल पाती, जो उनके लिए वाक़ई सज़ा और दूसरों के लिए इबरत साबित हों। मुजरिम केवल बलात्कारी ही नहीं होते, मुजरिम केवल उन्हें छेड़ने और सताने वाले ही नहीं होते बल्कि वे भी उनके जुर्म में बराबर के शरीक हैं जिन्होंने औरत को पहले तो कमज़ोर बनाकर ज़ालिमों के लिए एक तर निवाला बना दिया और फिर उसे सुरक्षा भी नहीं दे पाए।
    ‘हम सब मुजरिम हैं।‘ पहले हमें यह मानना होगा। एक मुजरिम के रूप में अपनी भूमिका को पहले स्वीकारना होगा, तभी हम अपनी आत्मा और ज़मीर पर वह घुटन महसूस कर पाएंगे जो कि हमें अपनी सोच और अपने अमल को सुधारने के लिए मजबूर करेगी।
    पुरातन और आधुनिक, दोनों संस्कृतियों में जो भी लाभदायक तत्व हैं उन्हें लेते हुए हमें नए सिरे उस व्यवस्था की खोज करनी होगी जो औरत को शरीर, मन और आत्मा तीनों स्तर पर स्वीकारने के लिए हमें प्रेरित भी करे और यह भी बताए कि हम पर उसके क्या हक़ हैं और उन्हें अदा कैसे और किसलिए किया जाए ?
    औरत मां है, बहन है, बेटी है। किसी के साथ कभी भी और कुछ भी हो जाता है। किसी की भी मां-बहन-बेटी के साथ कुछ भी हो सकता है। सभी सुरक्षित रहें और आज़ाद रहते हुए अपनी पसंद के फ़ील्ड में अपनी सेवाएं देकर समाज को बेहतर बनाएं, इसके लिए हमें मिलकर कोशिश करनी होगी और वह भी तुरंत, बहुत देर तो पहले ही हो चुकी है। अब औरत की आहों पर, उसकी कराहों पर सही तौर पर ध्यान देना होगा और उसके दुख को, उसके दर्द को गहराई से समझना होगा ताकि उसे दूर किया जा सके। औरत भी यही चाहती है।
    औरत सरापा मुहब्बत है। वह सबको मुहब्बत देती है और बदले में भी फ़क़त वही चाहती है जो कि वह देती है। क्या मर्द औरत को वह तक भी लौटाने में असमर्थ है जो कि वह औरत से हमेशा पाता आया है और भरपूर पाता आया है ?
                       
कभी बेटी कभी बीवी कभी मां है औरत
आदमी के लिए ईनामे खुदा है औरत
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              यह लेख मैं बहन रेखा श्रीवास्तव जी को सादर अर्पित करता हूं। मैं बहन रेखा जी को ब्लागिस्तान की उन चुनिंदा औरतों में शुमार करता हूं जो एक पुख्ता सोच की मालिक हैं, जिन्होंने ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा है और बहुत शिद्दत से महसूस भी किया है। उनकी सोच व्यवहारिक है और उनके लेख और कमेंट प्रायः तथ्यपरक होते हैं। औरत की हालत को रेखांकित करते हुए जनाब मासूम साहब ने एक लेख
भारतीय संस्कृति में लज्जा को नारी का श्रृंगार माना गया है(11/22/2010 01:10)
‘अमन के पैग़ाम‘ पर दिया था।
  उस पर मैंने भी टिप्पणी की थी। मैंने कहा था कि ‘आज औरत घर से बाहर जिन लोगों के बीच मजबूरन काम करती है वे नेक पाक नीयत और अमल के लोग नहीं हैं। उनका साथ औरत के लिए कष्ट और शोषण का कारण बनता है।‘ 
         उसी लेख पर बहन रेखा जी ने भी टिप्पणी की थी। उन्होंने फ़रमाया था कि ‘सभी औरतों का चरित्र और हालात एक से नहीं होते। औरतें आज अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं। ससुर द्वारा अपनी बहुओं के साथ बलात्कार घर में ही घटित होते हैं, जिसपर हमारा समाज उपेक्षा का भाव लिए रहता है।‘
न मैंने कुछ ग़लत कहा था और न ही बहन रेखा जी ने ज़रा भी झूठ कहा था। औरत की बदहाली और उसके तमाम कारणों को बयान करने के लिए एक टिप्पणी तो क्या, पूरा एक लेख भी नाकाफ़ी है। उसमें केवल सूक्ष्म संकेत ही आ पाते हैं। ये दोनों टिप्पणियां भी समस्या के दो अलग कोण पाठक के सामने रखती हैं।
मैं बहन रेखा जी की टिप्पणी से सहमत हूं और मुझे उम्मीद है वे भी मेरे लेख की भावना और सुझाव से सहमत होंगी और उनके जैसी मेरी दूसरी बहनें भी।
मिलकर जागें, मिलकर जगाएं
बदहाली अब दूर भगाएं

14 comments:


shikha varshney said...
काफी ठीक कहा है आपने .
DR. ANWER JAMAL said...
शुक्रिया आदरणीया बहन शिखा जी . मालिक आपकी ज्योति को हर ओर फैलाये . मिलकर जागें, मिलकर जगाएं बदहाली अब दूर भगाएं
एस.एम.मासूम said...
एक बेहतरीन लेख़ अनवर साहब.इसको मैं अपने किसी ब्लॉग मैं पेश करने की इजाज़त चाहूँगा.
एस.एम.मासूम said...
औरत सरापा मुहब्बत है। वह सबको मुहब्बत देती है और बदले में भी फ़क़त वही चाहती है जो कि वह देती है. .. बहुत सही बात कही है
DR. ANWER JAMAL said...
@ जनाब मासूम साहब ! आप जैसे पाठक को मेरी पोस्ट पसंद आई , यह मेरे लिये एक बड़ा ऐज़ाज़ है । आप मेरी जिस पोस्ट को जहां पेश करना चाहें पेश कर सकते हैं , यह मेरे लिए एक ख़ुशी की बात होगी । हम अकेले ही नहीं प्यार के दीवाने सनम आप भी नज़रें झुकाने की अदा भूल गए अब तो सोचा है दामन ही तेरा थामेंगे हाथ जब हमने उठाए हैं दुआ भूल गए फ़ारूख़ क़ैसर की एक ग़ज़ल , जो दिल को छूते हुए आत्मा में जा समाती है ।
URDU SHAAYRI said...
शेर अच्छा है
संजय भास्कर said...
बहुत सही बात कही है
संजय भास्कर said...
bhaskar khus hua....
रेखा श्रीवास्तव said...
अनवर भाई, मुझे इतना सम्मान दिया बहुत बहुत धन्यवाद. आपने जो लिखा है बिल्कुल सही लिखा है लेकिन ये भी कुछ लोगों को रास नहीं आता है. खैर ये तो अपनी अपनी सोच है, इसको बदला नहीं जा सकता है.
Anjana (Gudia) said...
मिलकर जागें, मिलकर जगाएं बदहाली अब दूर भगाएं sehti hai phir bhi muskurati hai, kyunki apne liye nahi, doosron ke liye jeeti hai